Tuesday, January 21, 2014


शिक्षा का आधा-अधूरा अधिकार

निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार (राइट टू एजुकेशन-आरटीई) तीन वर्ष पूर्व लागू किया गया था। इस मकसद से कि छह से चौदह वर्ष तक की आयु के तमाम बच्चे शिक्षा का लाभ ले सकें। लेकिन हाल में इसको लेकर चौंकाने वाले आंकड़े प्रकाश में आए हैं। इन्हें आरटीई का क्रियान्वयन करने वाले केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने ही जारी किया है। बताया गया है कि शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के तीन वर्ष बाद देश में अब भी शिक्षकों के 11.87 लाख पद रिक्त हैं। इनमें आधे बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में हैं। तीनों राज्यों का देश में शिक्षकों के कुल रिक्त पदों में 52.29 प्रतिशत हिस्सा है। हकीकत इससे ज्यादा निराशाजनक हो सकती है। इसलिए कि आरटीई कानून में अशक्त बच्चों की परिभाषा अस्पष्ट है। ऐसे में अशक्त बच्चों के संबंध में शिक्षकों की संख्या और उन्हें प्रशिक्षित करने और बच्चों की जरूरतों के बारे में जागरूकता को लेकर भ्रमपूर्ण स्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता। दरअसल, लाभार्थियों की संख्या और पात्रता संबंधी तस्वीर साफ न होने की सूरत में कोई भी योजना अपने लक्ष्य से भटक सकती है। यही आरटीई के मामले में हो रहा है। इसे लागू किए तीन वर्ष हो चुके हैं, लेकिन इसकी कमियां और खामियां बनी हुई हैं। इतने महत्त्वाकांक्षी और देश के भविष्य का कायाकल्प कर देने वाले मंसूबे को अब भी शिक्षकों की कमी, वंचित वर्ग के बच्चों के लिए निश्चित संख्या में आरक्षण, अशक्त बच्चों को शिक्षा के अवसर मुहैया कराने में नाकामी जैसी तमाम बातों से दो-चार होना पड़ रहा है। दरअसल, आरटीई को आधे-अधूरे ढंग से क्रियान्वित किया जा रहा है। चूंकि केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर इस मंसूबे को मूर्त रूप देने में जुटी हैं, अत: इसके लिए धन की कोई कमी नहीं है। सवाल है कि लक्षित नतीजे नहीं मिल पाने के कारण क्या हैं। दरअसल, लक्षित लाभार्थियों को लेकर अस्पष्टता से अपेक्षित कामयाबी नहीं मिल पा रही है। किसी योजना को अंजाम तक पहुंचाने में आवश्यक ढांचा तैयार करने में जो होमवर्क होना चाहिए, उस लिहाज से भी लगता है कि कोई खास प्रयास नहीं किए गए। बस, मनभाते परिणाम की कल्पना की और काम शुरू कर दिया गया। इस क्षेत्र में किस प्रकार की चुनौतियां दरपेश होंगी या किस प्रकार की तल्ख हकीकतों से पाला पड़ सकता है, उन पर गौर करने की नीति बनाने वालों ने लगता है, जरूरत ही नहीं समझी। नतीजतन खासी संभावनाओं वाले कार्यक्रम के लक्षित नतीजे नहीं मिल रहे हैं।

साभार राष्ट्रीय सहारा