नया शिक्षा सत्र शुरू हो चुका है। विद्यालय परिसर बच्चों के
कलरव से जीवंत हैं, पर इस
तस्वीर में सिर्फ साधन-संपन्न परिवारों के बच्चे दिख रहे हैं। साधनहीन परिवारों के
बच्चे दाखिले के लिए अपने अभिभावकों के साथ विद्यालयों के चक्कर काट रहे हैं, जहां उनके साथ दुर्भावनापूर्ण एवं अपमानजनक व्यवहार किया जा
रहा है। दुर्भाग्य है कि संसद में कानून बनने के एक दशक बाद भी विद्यालय इस कानून
से बचने का प्रयास करते दिखते हैं। विद्यालयों के इस रवैये पर बेसिक शिक्षा विभाग
और स्थानीय प्रशासन भी मौन रहते हैं। इस कानून में सभी निजी विद्यालयों के लिए 25 फीसद सीटें निर्बल आयवर्ग परिवारों के बच्चों के लिए आरक्षित
करने का प्रावधान है यद्यपि अपवाद छोड़कर अधिकतर विद्यालय इस कानून को इसकी मंशा
के अनुरूप लागू नहीं कर रहे। नियमानुसार, शिक्षा के
अधिकार के तहत सभी दाखिले शिक्षा सत्र शुरू होने से पहले कर लिए जाने चाहिए ताकि
ये बच्चे भी सामान्य बच्चों के साथ पढ़ाई कर सकें किंतु विद्यालय प्रबंधकों के
नकारात्मक और प्रशासन के तटस्थ रवैये की वजह से ऐसा संभव नहीं हो पा रहा। शासन को
अविलंब शिक्षा के अधिकार के तहत निजी विद्यालयों में दाखिलांे की समीक्षा करनी
चाहिए। यह जिलाधिकारी और बेसिक शिक्षा अधिकारी की जिम्मेदारी है कि प्रत्येक निजी
विद्यालय की 25
फीसद सीटों पर निर्बल आयवर्ग
परिवारों के बच्चों को प्रवेश मिले। निजी विद्यालयों को आदेश दिया जाना चाहिए कि
वे इस कानून के तहत स्कूल में दाखिल बच्चों की सूची सार्वजनिक करें। यह तमाम कवायद
यूुद्धस्तर पर की जानी चाहिए ताकि ये बच्चे पढ़ाई में पिछड़ न जाएं। जो विद्यालय
इस कानून को ठेंगा दिखाने की जिद कर रहे हैं, उन्हें
कानून की ताकत का अहसास कराया जाना चाहिए। समाज के सभी वर्गो में समानता और समरसता
बढ़ाने के लिए शिक्षा के स्तर में समानता लाना आवश्यक है। इस दृष्टि से शिक्षा के
अधिकार कानून को मील का पत्थर माना जा रहा है यद्यपि गठन के दस साल बाद भी यह
कानून स्वीकार्यता के लिए तरस रहा है। इसे पूर्ण प्रभावी बनाने के लिए यदि अंगुली
टेढ़ी करने की जरूरत लगे तो शासन को संकोच नहीं करना चाहिए।
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