Monday, January 19, 2015

भोजन, किताबों व यूनीफॉर्म के बावजूद
निजी स्कूलों में बढ़ा बच्चों का नामांकन



सर्व शिक्षा अभियान के तहत लगभग डेढ़ दशक में अरबों रुपये फूंकने के बावजूद परिषदीय/ सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था पिट रही है। वर्ष 2001-02 से लेकर अब तक सूबे में अभियान के तहत 26500 नये प्राथमिक व 29000 उच्च प्राथमिक स्कूल बनाये जा चुके हैं। इसके बावजूद परिषदीय विद्यालय अपनी जमीन खोते जा रहे हैं। परिषदीय स्कूलों में मिड-डे मील, मुफ्त किताबें और यूनीफॉर्म बांटने के बाद भी निजी स्कूलों में बच्चों के नामांकन का ग्राफ लगातार बढ़ता जा रहा है। 169 जिलों में किए गए सर्वेक्षण के आधार पर तैयार की गई एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन (असर) रिपोर्ट, 2014 बताती है कि 2006 में उत्तर प्रदेश के निजी स्कूलों में छह से 14 आयु वर्ग के 30.3 प्रतिशत बच्चे नामांकित थे। 2014 में यह आंकड़ा बढ़कर 51.7 फीसद हो गया है। परिषदीय स्कूलों में इस आयु वर्ग के 41.1 प्रतिशत बच्चे ही नामांकित पाये गए। शिक्षा के अधिकार कानून का ढिंढोरा जोरशोर से पीटने के बावजूद छह से 14 साल तक के 4.9 फीसद बच्चों का स्कूलों से कोई नाता नहीं है।
यह विडंबना ही है कि वर्ष 2013-14 में परिषदीय शिक्षकों के वेतन पर 16 हजार करोड़ रुपये खर्च होने के बावजूद बच्चों के पढ़ने, समझने और सीखने का स्तर निराशाजनक है। असर की रिपोर्ट बताती है कि 2014 में सरकारी स्कूलों में कक्षा तीन के 13.4 प्रतिशत बच्चे ऐसे मिले जो कम से कम कक्षा एक के स्तर का पाठ पढ़ सकते हैं जबकि निजी विद्यालयों में ऐसे बच्चों का प्रतिशत 54.8 फीसद पाया गया। सरकारी स्कूलों में पांचवीं कक्षा के महज 26.8 फीसद बच्चे ही कक्षा दो के स्तर का पाठ पढ़ने के लायक मिले जबकि निजी स्कूलों में यह आंकड़ा 61.4 प्रतिशत है। बच्चों में पढ़ने की समझ के मामले में सरकारी स्कूलों का प्रदर्शन पहले की तुलना में खराब हुआ है। 2006 में सरकारी स्कूलों में कक्षा तीन के 23.5 प्रतिशत बच्चे ऐसे पाये गए थे जो कक्षा एक के स्तर का पाठ पढ़ सकते हों, वहीं कक्षा पांच के 30.9 फीसद बच्चे कक्षा दो के स्तर का पाठ पढ़ने के काबिल मिले थे।
परिषदीय स्कूलों में गणित और अंग्रेजी विषयों की पढ़ाई पर जोर देने की मुहिम भी बेदम साबित हुई है। रिपोर्ट के मुताबिक 2014 में सरकारी स्कूलों में कक्षा तीन के महज 6.6 प्रतिशत बच्चे गणित में घटाव के सवाल हल करने में सक्षम पाये गए जबकि निजी स्कूलों में यह आंकड़ा 38.5 फीसद था। निजी विद्यालयों में पांचवीं कक्षा के 38.7 फीसद बच्चे भाग के सवाल हल करने में समर्थ मिले जबकि सरकारी स्कूलों में यह काबिलियत सिर्फ 12.1 प्रतिशत बच्चों में पायी गई। रिपोर्ट यह भी तस्दीक करती है कि सरकारी स्कूलों के ज्यादातर बच्चों के लिए अंग्रेजी के शब्द काला अक्षर भैंस बराबर हैं। 2014 में सरकारी स्कूलों में कक्षा पांच के सिर्फ 22.8 फीसद बच्चे ही कम से कम शब्द पढ़ने के लायक मिले जबकि निजी स्कूलों में ऐसे 63.3 प्रतिशत बच्चे हैं। निजी विद्यालयों में कक्षा सात के 47.2 प्रतिशत बच्चे वाक्य पढ़ने में सक्षम मिले जबकि सरकारी स्कूलों में यह संख्या महज 18.5 प्रतिशत पायी गई।

 साभार दैनिकजागरण