Saturday, March 22, 2014

विश्व जल दिवस :-


ऊर्जा से पानी और पानी से बचेगी ऊर्जा 
भारतीय जल पर बात करने के पारंपरिक दिवस और बहुत हैं; अक्षय तृतीया, गंगा दशहरा, कजरी तीज, देवउठनी एकादशी, कार्तिक पूर्णिमा, मकर सक्रान्ति आदि आदि। 22 मार्च अंतरराष्ट्रीय जल दिवस है, तो बात क्यूं न अंतरराष्ट्रीय ही की जाए। भारत के नए विज्ञापनों में पानी की बचत के नुस्खे मुंह, बर्तन, गाड़ी धोते वक्त नल खुला रखने के बजाए मग-बाल्टी के उपयोग तथा अनुशासित सिंचाई तक सीमित रहते हैं। यह हम सब जानते है। किंतु आपको यह जानकर अच्छा लगेगा कि इस मामले में अंतरराष्ट्रीय नजरिया बेहद बुनियादी है और ज्यादा व्यापक भी।

वे मानते हैं कि पानी.. ऊर्जा है और ऊर्जा.. पानी। यदि पानी बचाना है तो ऊर्जा बचाओ। यदि ऊर्जा बचानी है तो पानी की बचत करना सीखो। बिजली के कम खपत वाले फ्रिज, बल्ब, मोटरें उपयोग करो। पेट्रोल की बजाए प्राकृतिक गैस से कार चलाओ। कोयला व तैलीय ईंधन से लेकर गैस संयंत्रों तक को ठंडा करने की ऐसी तकनीक उपयोग करो कि उसमें कम से कम पानी लगे। उन्हें हवा से ठंडा करने की तकनीक का उपयोग करो। ऊर्जा बनाने के लिए हवा, कचरा तथा सूरज का उपयोग करो। फोटोवोल्टिक तकनीक अपनाओ। पानी गर्म करने, खाना बनाने आदि में कम से कम ईंधन का उपयोग करो। उन्नत चूल्हे तथा उस ईंधन का उपयोग करो, जो बजाए किसी फ़ैक्टरी में बनने के हमारे आसपास के वस्तुओं द्वारा तैयार व उपलब्ध हो। गोबर एक ऐसा ही ईंधन है।
पानी और आग का रिश्ता

पानी और आग का यह रिश्ता सचमुच बेहद दिलचस्प है। मैं सहमत हूं कि बिजली व ईंधन की बढ़ती खपत के इस युग में ऊर्जा बचाने पर विचार किए बगैर पानी बचाने की दृष्टि में समग्रता का आना असंभव है। सोचिए! यदि गैस, ईंधन व बिजली जैसे ऊर्जा के स्रोत नहीं होंगे, तो क्या हमारी गाड़ियां, टयुबवेल, रसोई के गैसस्टोव कैसे चलेंगे? ऊर्जा न हो तो गर्म पानी की लाॅड्री में कपड़ा धुलवाना तो सपना ही रह जाएगा। बिना ऊर्जा कोल्ड स्टोर में साल भर तक आलू, फल व दूसरे उत्पादों की सुरक्षा कैसे संभव होगी? बर्फ व आइसक्रीम कहां संभव होगी? दूसरी तरफ चित्र यह है कि यदि ताजे पानी की कमी हो गई तो हम पेट्रोल, प्लास्टिक, लोहा, बिजली, गैस जैसे तमाम जरूरी हो चुके उत्पादनों से महरूम हो जाएंगे।

हकीक़त यही है कि पानी के बिना न बिजली बन सकती है और न ही ईंधन व दूसरे उत्पाद बनाने वाले ज्यादातर उद्योग चल सकते हैं। किसी भी संयंत्र को ठंडा करने तथा कचरे का शोधन करने के लिए पानी चाहिए ही। कोयले से बिजली बनाने वाले थर्मल पावर संयंत्रों में इलेक्ट्रिक जनरेटर को घुमाने के लिए जिस भाप की जरूरत पड़ती है, वह पानी से ही संभव है। परमाणु ऊर्जा संयंत्र 25 से 60 गैलन पानी प्रति किलोवाटर घंटा की मांग करता है। तेल को साफ करके पेट्रोल बनाना बिना पानी संभव नहीं। बायो डीजल की खेती क्या बिना पानी संभव है?
अमेरिकी अनुभव

उल्लेखनीय है कि यह अमेरिकी नजरिया एक खास अनुभव के बाद बना है। यूनियन आॅफ कन्सर्न साइंटिस्टकी एक रिपोर्ट बताती है कि बिजली बनाने में अमेरिका प्रतिदिन इतना ताजा पानी खर्च करता है, जितना न्यूयार्क जैसे 180 शहर मिलकर एक दिन में करते हैं। यह आंकड़ा 40 बिलियन गैलन प्रतिदिन का है। अमेरिका में पानी की कुल खपत का मात्र 5 प्रतिशत उद्योग में, 13 प्रतिशत घरेलू उपयोग में, 37 प्रतिशत खेती में, 5 प्रतिशत अन्य में और सबसे ज्यादा 41 प्रतिशत ऊर्जा उत्पादन में खर्च होता है। एक ओर ऊर्जा उत्पादन के लिए ताजे पानी का खर्च बढ़ रहा है, दूसरी तरफ किसान, उद्योग और शहर के बीच खपत व बंटवारे के विवाद बढ़ रहे हैं। आकलन यह है कि कम होती बारिश व सूखा मिलकर 2025 तक ली वेगास, साल्ट लेक, जार्जिया, टेनेसी जैसे इलाकों के पानी प्रबंधन पर लाल निशान लगा देंगे। चेतावनी यह भी है कि 2050 तक कोलरेडा जैसी कई प्रमुख नदी के प्रवाह में भी 20 प्रतिशत तक कमी आ जाएगी।

खतरनाक यह है कि संयंत्रों से निकलने वाले गर्म पानी के भीतर का पूरा जैविक तंत्र नष्ट हो जाता है। पानी की शुद्धता के लिए जरूरी मछलियां, दूसरे जीव व वनस्पति ही नहीं, आसपास की मिट्टी की गुणवत्ता तथा खेती भी संकटग्रस्त हो जाती है। सिर्फ इतना नहीं, थर्मल पावर प्लांट से निकलने वाले आर्सेनिक, पारा, सीसा जैसे खतरनाक रसायन पूरा जीवन ही नष्ट कर देते हैं। अमेरिका के थर्मल पावर संयंत्रों से 120 मिलियन टन कचरा छोड़ने का आंकड़ा है। भारत की सरकार ऐसे आंकड़ों को शायद ही कभी बताना चाहे। खैर! इस पूरे परिदृश्य का परिणाम यह है कि 2004 के बाद से अब तक अमेरिका के एक दर्जन बड़े बिजली संयंत्र या तो बंद हो गए हैं अथवा उत्पादन गिर जाने से बंद होने के कगार पर हैं। उसने अपने कई बड़े बांधों को तोड़ दिया है। खबर यह भी है कि आठ राज्यों ने तो नए बिजली संयंत्र लगाने से ही इंकार कर दिया है। भारत में भी विद्युत संयंत्रों से उत्पादन में गिरावट का चित्र भी ऐसा ही है।
अनुभवों से कब सीखेगा भारत?

केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण के अनुसार भारत की 89 प्रतिशत पनबिजली परियोजनाएं अपनी स्थापना क्षमता से कम उत्पादन कर रही हैं। सैंड्रप के अनुसार टिहरी की उत्पादन क्षमता 2400 मेगावाट दर्ज है। व्यवहार में वह औसतन 436 मेगावाट उत्पादन कर रही है। अधिकतम उत्पादन 700 मेगावाट से अधिक कभी हुआ ही नहीं। वाष्पन-गाद निकासी में पानी व पैसे की निकासी तथा मलबा निष्पादन के कुप्रबंधन के जरिए हुए नुकसान का गणित लगाएं तो बड़ी पनबिजली परियोजनाओं से लाभ कमाने की तस्वीर शुभ नहीं दिखाई देती। बावजूद इसके विकास के नए पैमानों पर अमेरिका को नजीर के रूप में पेश करने वालेे हमारे नेता, अफसर, योजनाकार और खुद नागरिकों ने अमेेरिका और खुद के इन अनुभवों से कुछ नहीं सीखा।

क्या यह झूठ है कि भारतीयों के आधुनिक होते रहन-सहन से लेकर नए-नए तकनीकी घरेलू सामानों का सारा जोर पानी व बिजली की खपत पर ही है? सोचिए! क्या हमारी नई जीवनशैली के कारण पेट्रोल, गैस व बिजली की खपत बढ़ी नहीं है? क्या हम हवा, सूरज व भू-ऊर्जा की बजाए पनबिजली व परमाणु बिजली संयंत्रों की वकालत करने वालों वकीलों के चक्कर में रोज ही फंसते नहीं जा रहे हैं? बिहार व उत्तर-पूर्व समेत भारत के तमाम राज्य बड़ी पनबिजली परियोजनाओं को लालायित दिखाई दे रहे हैं। वे इसे क्लीन एनर्जी-ग्रीन एनर्जीके रूप में प्रोत्साहित कर रहे हैं। हमें यह भी देखना चाहिए कि बायो डीजल उत्पादन का विचार भारत की आबोहवा व मिट्टी के कितना अनुकूल है।

स्वच्छ ऊर्जा की समझ जरूरी

हमें समझने की जरूरत है कि स्वच्छ ऊर्जा वह होती है, जिसके उत्पादन में कम पानी लगे तथा कार्बन डाइआॅक्साइड व दूसरे प्रदूषक कम निकले। इन दो मानदंडों को सामने रखकर सही आकलन संभव है। परमाणु व कोयले की तुलना में सूरज, हवा, पानी तथा ज्वालामुखियों में मौजूद ऊर्जा को बिजली में तब्दील करने में कुछ कम पानी चाहिए। मक्का से बनने वाले काॅर्न इथेनाॅल को 0.6-2.0 जीपीएम, सैलुलोज बायोडीजल को 0.1 से 0.6 जीपीएम और गैसोलिन को सबसे कम 0.1 से 0.3 जीपीएम पानी चाहिए। यह तीनों ईंधन यातायात में ही प्रयोग होते हैं। सैलुलोज बायोडीजल सूखा क्षेत्रों की घास व टहनियों से बनाया जाता है। इसीलिए विकसित देशों के वैज्ञानिक बिन पानी हवा से संयंत्रों को ठंडा करने वाली प्रक्रिया का अनुमोदन करते हैं। एक उन्नत प्रक्रिया में गर्मी के समय में पानी और शेष में हवा का ही प्रयोग होता है। बंद लूप प्रक्रिया में पानी के पुर्नउपयोग का प्रावधान है। एक अन्य प्रक्रिया में तालाब-झीलों का पानी उपयोग कर वापस जलसंरचनाओं में पहुंचाया जाता है।
बोतल और उसमें बंद पानी पर ऊर्जा-कचरा

बाजार में उपलब्ध बोतलबंद पानी को लेकर दिलचस्प आंकड़ा यह है कि एक लीटर पानी के उत्पादन में तीन लीटर पानी खर्च होता है। स्तरीय प्लास्टिक बोतलें पाॅलीथाइलीन टेरेफाइथोलेट (पेटा) से बनती हैं। पेटा का उत्पादन प्राकृतिक गैस व पेट्रोलियम से होता है। इस तरह एक लीटर की पेटा बोतल बनाने में 3.4 मेगाज्युल ऊर्जा खर्च होती है।

हकीकत यह है कि एक टन पेटा बोतल के उत्पादन प्रक्रिया के दौरान तीन टन कार्बन डाइऑक्साइड निकलकर हमारे वातावरण में समा जाती है। ऐसे में दोष बदलते मौसम को क्यों? यह विरोधाभास भी क्यों बना रहे कि जो देश अपने यहां यह नजरिया रखते हैं, वे ही भारत में इससे उलट नजरिए को बढ़ाने का काम कर रहे हैं। भारत इस उलट नजरिए को उलटकर अपने अनुकूल बिजली व पानी की नीति को आगे बढ़ाए; इस जल दिवस का बस! यही संदेश है।